मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर... जाहिद खान
मै अकेला ही चला था जानिब-ए- मंज़िल मगर/लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया' उर्दू अदब में ऐसे बहुत कम शे'र हैं, जो शायर की पहचान बन गए और आज भी सियासी, समाजी महफिलों और तमाम ऐसी बैठकों में ___ कहावतों की तरह दोहराए जाते हैं। मजरूह सुल्तानपुरी गर अपनी जिन्दगी में इस शे'र के अलावा कुछ और नह…
अमृता प्रीतम : एक शर्मीली-मजबूत स्त्री :विजय शर्मा
जब भी अमृता प्रीतम का नाम कहीं आता है लोग तुरन्त अमृता और इमरोज राज की बात करने लगते हैं। उनको हीर-रांझा, लैला-मजनूं, सोहनी-महिवाल की श्रेणी में बैठाने लगते हैं। दोनों का आपसी रिश्ता बहुत खूबसूरत था मगर दोनों के व्यक्तित्व के तमाम अन्य आयाम भी है जो इस चर्चा की छाया में अनदेखे _ रह जाते हैंइमरोज का…
कटघरे में पत्र
हाल ही में ह्यूमन राइट्स ला नेटवर्क ने प्रेस क्लब ऑफ इंडिया, इंडियन वुमेन प्रेस कम, मुम्बई प्रेस क्लब, दिल्ली यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट और मीडिया स्टडीज ग्रुप के साथ मिलकर एक देशव्यापी अध्ययन किया है, और यह समाज, लोकतंत्र, अभिव्यक्ति, नागरिक अधिकार और जनहित के सवालों के लिए सरोकार रखने वाले सजग नागरिकों,…
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कटघरे में पत्र
हाल ही में ह्यूमन राइट्स ला नेटवर्क ने प्रेस क्लब ऑफ इंडिया, इंडियन वुमेन प्रेस कम, मुम्बई प्रेस क्लब, दिल्ली यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट और मीडिया स्टडीज ग्रुप के साथ मिलकर एक देशव्यापी अध्ययन किया है, और यह समाज, लोकतंत्र, अभिव्यक्ति, नागरिक अधिकार और जनहित के सवालों के लिए सरोकार रखने वाले सजग नागरिकों,…
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चेतना झा की कुछ कविताएं
सदियों से वहीं हम टस से मस नहीं हुई दुनिया  सदियों से अटकी वहीं,  या कोठरी से निकलने की  कुंजी ही खो गई कहीं  नमक चटाकर  तकिया दबाकर/ चहकने से पहले ही हर लेते थे नन्ही सी जान  अब कोख में ही  इत्ती-सी टिकिया खिला चुपके से मिटा देते  उसके आने का निशान  दिन में जो पहचानते नहीं  रात उस सुहाग का बिस्तर …
लीलाधर मंडलोई,( दस कविताएँ ) कोई और काम
माँ को कोई और काम न मिला तो उसने खदान के लिए गुटके बनाने का काम ले लिया ऐसे गुटके जिनके भीतर मिट्टी थी नर्म मुलायम जो डिटोनेटर (बारूद) तक को सहेजती ताकि तोड़े जा सकें कोयले के पहाड़   माँ ने मुझे सिखाया गैंती से मिट्टी तोड़ना ऐसी जिसमें मुलायम पत्थर और कंकड़ होते, जिन्हें मैं चुन कर अलग करता और वे …