चेतना झा की कुछ कविताएं

सदियों से वहीं हम


टस से मस नहीं हुई दुनिया 


सदियों से अटकी वहीं, 


या कोठरी से निकलने की 


कुंजी ही खो गई कहीं 


नमक चटाकर 


तकिया दबाकर/ चहकने से पहले ही


हर लेते थे नन्ही सी जान 


अब कोख में ही 


इत्ती-सी टिकिया खिला


चुपके से मिटा देते 


उसके आने का निशान 


दिन में जो पहचानते नहीं 


रात उस सुहाग का बिस्तर 


ढलमल होते मायने 


स्नेह, रैयत, मिलन, नस्तर 


सालों साल का सिलसिला 


बनती जनने की मशीन,


फसलें बदलती रहीं 


नहीं बदल पाई जमीन  


साल गुजरे, वक्त बदला


पर नहीं बदले हालात,


जनने की मशीन अब 


खटखट कराती गर्भपात 


कंधे पर लदे अब भी 


सड़े  गले पुराने रिवाज 


सुर, शब्द सब वही/ बस बदला है अंदाज 


पहले भी उसकी खुराक 


मार लेता था व्रत त्यौहार,


अब डायटिंग के नाम पर 


शरीर झेलता अत्याचार।


 


दो पाती ईश्वर के नाम 


अच्छा नहीं होता 


पूजने वालों की आँखों से गिरना...


ईश्वर, तुम्हारे हक़ में है 


हमारा नास्तिक होना 


हक़ खाने वालों की दीवाली,


गँवाने वालों की मुफ़लिसी,


खलती है तेरी चुप्पी 


जब हँस चुगता दाना... 


ईश्वर, तुम्हारे हक़ में है


हमारा नास्तिक होना।