जब भी अमृता प्रीतम का नाम कहीं आता है लोग तुरन्त अमृता और इमरोज राज की बात करने लगते हैं। उनको हीर-रांझा, लैला-मजनूं, सोहनी-महिवाल की श्रेणी में बैठाने लगते हैं। दोनों का आपसी रिश्ता बहुत खूबसूरत था मगर दोनों के व्यक्तित्व के तमाम अन्य आयाम भी है जो इस चर्चा की छाया में अनदेखे _ रह जाते हैंइमरोज का अपना व्यक्तित्व है, वे चित्रकार हैं जिन्होंने तमाम चित्रों के साथ-साथ अमृता प्रीतम के भी ढेरों चित्र बनाए हैं। 'लव' थीम पर चित्र बनाने के अलावा वे किताबों के कवर डिजाइन बनाते हैं, लैंप शेड्स पर कैलीग्राफी कर उन्हें खूबसूरत बनाते हैं। इसके अलावा लोग अमृता प्रीतम और साहिर लुधियानवी के किस्से भी बड़े चाव से सुनाते हैं जिन्हें खुद अमृता ने लिखा है। लेकिन अमृता प्रीतम इसके अलावा भी बहुत कुछ हैं। वे एक स्वतंत्र व्यक्तित्व हैं। अपनी 'कविताओं, कहानियों, उपन्यासों तथा आत्मकथा के लिए जानी जाने वाली, जिनके साहित्य का विभिन्न भाषाओं में अनुवाद उपलब्ध है।
अनुवाद से बताती चलूँ कि अमृता प्रीतम पंजाबी की साहित्यकार हैं, मगर हिन्दी वाले उन्हें अपना मानते-जानते हैं। मुझे बहुत दिन तक मालूम न था कि वे हिन्दी की रचनाकार नहीं हैं। इस रचनाकार का जन्म 31 अगस्त 1919 में गुजरांवाला (आज के पाकिस्तान का पंजाब) में पंजाबी भाषी परिवार में हआ था। उनके पिता का नाम करतार सिंह था। माँ बचपन में ही गुजर गईं। मुख्य रूप से वे कवयित्री हैं, मगर मेरा परिचय उनके गद्य से अधिक है। 'लोक पीड', 'मैं जा, आ तू', 'लामियाँ वतन', 'कस्तूरी', 'सुनहड़े', 'कागज ते कैनवस' उनके काव्य-संग्रहों के नाम हैं। उनके उपन्यास 'डॉक्टर देव', 'पिंजर' (इस पर फिल्म भी बनी है), 'आह्मणा', 'आशू', 'इस सिनोही', 'बुलावा', 'बंद दरवाजा', 'रंग द पत्ता', 'इक सी अनीता', 'चक नंबर छत्ती', 'धरती सागर ते सीपियाँ', 'दिल्ली दियाँ गलियाँ', एकते एरियल', 'जलावतन', 'यात्री', 'जेबकतरे', 'अग दा बूटा', 'पक्की हवेली', 'अग दी लकीर', 'कच्ची सडक', 'कोई नहीं जानदाँ', 'उनहाँ दी कहानी', 'इह सच है', 'दूसरी मंजिल' 'तेहरवाँ सूरज', 'उनीजा दिन', 'कोरे कागज', 'हरदत्त दा जिंदगीनामा' नाम से प्रकाशित हैं। इस अंतिम उपन्यास 'हरदत्त दा जिंदगीनामा' के शीर्षक को लेकर उनके तथा एक अन्य साहित्यकार कृष्णा सोबती के बीच मुकदमेबाजी भी हुई, क्योंकि कृष्णा सोबती के एक उपन्यास का नाम 'जिंदगीनामा' है।
'रसीदी टिकट' तथा 'अक्षरों के साए' उनकी आत्मकथाओं के नाम हैं। । । _ 'हीरे दी कनी', 'लटियाँ दी छोकरी', नि 'पंज वरा लंबी सड़क', 'इक शहर दी मौत' तथा 'तीसरी औरत' उनके कहानी संग्रह हैं। 'किरमिची लकीरें', 'काला गुलाब', 'इकी पत्तियाँ दा गुलाब', 'सरनामा', 'औरतः इस दृष्टिकोण', 'इक उदास किताब', 'अपने-अपने चार वरे', 'केड़ी जिंदगी केड़ा साहित्य', 'कच्चे अखर', 'इस हथ मेहन्दी इक हथ छल्ला', 'मुहब्बतनामा', 'मेरे काल मुकट समकाली', 'शौक सुरेही', 'कड़ी धुप्प दा सर', 'अज्ज दे कारि' उनकी अन्य गद्य कृतियाँ हैं। उन पर फिल्म भी बनी है, नाटक भी हुए हैं।
अमृता प्रीतम ने बचपन से लिखना प्रारम्भ कर दिया था 16 वर्ष की उम्र में उनका प्रकाशन भी प्रारम्भ हो गया थाशुरु में उन्होंने रेडियो पर 5 रुपये प्रतिदिन की नौकरी भी की। लेकिन बाद में केवल और केवल लेखन से जुड़ी रहींजब उनको संसद के लिए मनोनीत किया गया तो उन्होंने कहा कि वे तो राजनीतिज्ञ नहीं हैं। मगर राज्यसभा की सदस्य बन कर वे वहाँ 6 साल रहीं। इसी तरह वे अपनी किताबों का विमोचन वगैरह नहीं कराती थीं। उनका मानना था, 'लोग पढ़ना चाहेंगे तो खुद ही पढ़ेंगे, न पढ़ना चाहे तो न पढ़ें।' वे तो 'मैं' के पार जाना चाहती थीं। अपनी आत्मकथा 'रसीदी टिकट' में उन्होंने लिखा है, 'जिंदगी जाने कैसी किताब है, जिसकी इबारत अक्षर-अक्षर बनती है, और फिर अक्षर- अक्षर टूटती, बिखरती और बदलती है... और चेतना की एक लम्बी यात्रा के बाद एक मुकाम आता है, जब अपनी जिंदगी के बीते हुए काल का, उस काल के हर हादसे का, उसकी हर सुबह की निराशा का, उसकी हर दोपहरी की बेचौनी का, उसकी हर संध्या की उदासीनता का, और उसकी जागती रातों का एक वह जायजा लेने का सामर्थ्य पैदा होता है, जिसकी तशरीह में नए अर्थों का जलाल होता है, और जिसके साथ हर हादसा एक वह कड़ी बनकर सामने आता है, जिस पार किसी 'मैं' ने पैर रखकर 'मैं' के पार जाना होता है...।' इतना ही नहीं उनकी कविताओं में आध्यात्मिकता की भी झलक मिलती है।
अमृता प्रीतम खुली और बंद आँखों से सपने देखती थीं। उन्होंने अपनी कहानियों, उपन्यासों तथा कविताओं में स्वप्नों पर विस्तृत चर्चा की है। सपनों को वे आध्यात्मिक अनुभूति से जोड़ती हैं। उनकी एक प्रसिद्ध कविता है 'नौ सपने', इसमें छोटी-छोटी नौ कविताएँ हैं। इन कविताओं में वे अपनी कोख की हलचल और अपने प्रथम जापे की बात करती हैं। यहाँ उन्हें अपनी कोख में वह प्रकाश हिलता हुआ अनुभव होता है। मातृत्व को गरिमा प्रदान करती हुई वे लिखती हैं, 'जब कोख में कोई नीड़ बनता है, यह कैसा जप? कैसा तप? कि माँ को ईश्वर का दीदार कोख में होता है...' उन्हें अपनी कोख में हँस का पंख हिलता हुआ लगता है, 'गरी का पानी दूध की तरह' टपकता है।
उनकी आत्मकथा 'रसीदी टिकट' को भी खूब पढ़ा गया। आत्मकथा लिखना एक जोखिम भरा, साहस का काम है। इसमें रचनाकार अपने जीवन के अनसुनी, अनदेखी गोपनीय परतों की तहें खोलता है। स्त्री के लिए आत्मकथा लिखना और भी अधिक कठिन होता है। यदि ईमानदारी से यह न लिखी जाए तो आत्ममुग्धता का शिकार लेखक अपनी आत्मकथा को गुड़-गोबर कर सकता है। आत्मकथा लिखने के लिए खुद से निस्संग होना अत्यंत आवश्यक है। इसमें लुका-छिपी से काम नहीं चलता है। अमृता प्रीतम ने अपने जीवन के दु:ख-सुख, प्रेम-प्रसन्नता, बिछोह के झंझावात सबको खोल कर लिखा है, अपने जीवन की गोपनीयता पाठक के सामने बेबाक तरीके से खोल कर प्रस्तुत कर दी है। उन्होंने जोखिम उठाया है। साहस के साथ लिखी इस आत्मकथा को पाठकों ने हाथों-हाथ लिया।
उन्हें अपने बेबाक जीवन का खामियाजा भी भुगतना पड़ा। अमृता प्रीतम प्रगतिशील लेखक आंदोलन का हिस्सा थीं लेकिन अपने से कई साल छोटे इमरोज से दोस्ती के बाद उनकी बहुत आलोचना हुई। उन्हें किसी समारोह में प्रधान पद देना था लेकिन एक कम्युनिस्ट नेता ने कहा, 'नहीं, हम उसे नहीं बुलाएँगे, उसकी बदनामी के कारण हमारी सभा बदनाम हो जाएगी।' लेकिन उसी समय उन्हें एक दूसरी संस्था ने सम्मानित किया। इस सम्मान समारोह में बोलते हुए अमृता ने कहा, 'लेखक हर हाल में लेखक है, मौसम चाहे शोहरत का हो, चाहे गुमनामी का, चाहे बदनामी का।' समय बीत जाने पर वे शोहरात, गुमनामी और बदनामी को जिंदगी के मौसम कहती हैं। और उन्हें अत्सल्ली थी कि उन्होंने सब मौसम देखे। हाँ यह भी सही है कि कई बरस पहले, इन मौसमों से गुजरना बहुत कठिन लगता था।
लोगों ने अमृता प्रीतम को पढ़ा और खूब पढ़ा। पंजाबी भाषी तो उन्हें पढ़ते ही हैं मगर हिन्दी वालों ने भी उन्हें खूब पढ़ाउन्हें सदा अपना माना। अमृता प्रीतम एक मजबूत स्त्री थीं, उन्होंने जिंदगी को अपनी शर्तों पर जिया, कभी इस बात की परवाह नहीं की कि लोग क्या कहेंगे। जब 'लिव-इन-रिलेशनशिप' का नाम भी लोगों ने भारत में नहीं सुना था, तब उन्होंने यह जीवन अपनाया। उन्होंने अपनी रचनाओं में ऐसी ही स्त्री किरदारों को खड़ा किया है जो जिजीविषा से भरी हुई हैं और जब कोई कदम उठाती हैं तो मजबूती से उठाती हैं। 'जंगली बूटी' की अंगूरी पहले सोचती थी, 'औरतों को पाप लगता है पढ़ने से।' मानती थी कि जो लड़कियाँ प्रेम करती हैं, उन्हें, 'पाप लगता है. बडा पाप लगता है।' और जब एक दिन इस बेमेल ब्याह की मारी अंगूरी को किसी से प्यार हो जाता है तो वह कथावाचिका के पास आकर कहती है, 'बीबी जी, मुझे पढ़ना सिखा दो।' 'मुझे नाम लिखना सिखा दो।' स्त्री ठान ले तो कुछ भी कर गुजरती है। 'लटिया की छोकरी' की चारू पंद्रह-सोलह साल की लड़की है, वह लड़कों की तरह कमर में अंगोछा बाँध कर, छोटी कुर्ती पहने, बाल कटा कर रहती है। यह निडर लड़की मन-ही-मन ननकू को प्यार करती है। ननकू भी उसे बहुत चाहता है। किसी की मजाल नहीं कि वह चारू को हाथ लगाए। लेकिन एक दिन यही लडकी चारू अपना मिशन पूरा करने के बाद, अपनी माँ की बेइज्जती और मृत्यु और इस गम में पागल होकर मरे अपने पिता का बदला लेने के बाद सामान्य स्त्री की तरह ननकू से शादी करती है। उसने प्रण किया था अपने दुश्मन मालगुजार को मार डालने का और वह यह करती है।
बेमेल विवाह समाज में आम बात है। माता-पिता अपनी किशोरी बेटी को अधोड़ या दुहाजू से सौंपने में तनिक भी संकोच नहीं करते हैं। उन्हें झटपट अपनी लडकी किसी को सौंप देने की चिंता रहती है ताकि इस काम को निपटा कर गंगा नहा सकें। उन्हें लड़की की भावनाओं, उसके भविष्य की कोई फिक्र नहीं होती है। 'गाँजे की कली' में भी यही होता है, गुलबत्ती का पिता इस किशोरी की शादी अधेड़ और दुहाजू रंगीलाल से कर देता है। गुलबत्ती का असल नाम अघनिया था क्योंकि उसका जन्म अगहन मास में हुआ था। लेकिन उसने अपनी माँ से जिद कर अपना नाम स्वयं बदला था। नाम तो बदल लिया था मगर पति का क्या करे। पति जिसे उसके पिता ने उसके गले से बाँध दिया था। मगर इस मुक्तमना स्त्री का मन एक पंजाबी फेरीवाले हेम सिंह पर आ जाता है। वह सब छोड़कर उसका हाथ थाम लेती है।
गुलबत्ती हेम सिंह के घर बस जाती है। जिस दिन वह हेम सिंह से अपने गर्भवती होने की खुशी साझा करने वाली थी उस दिन उसे हेम सिंह की पहली पत्नी और बेटे की बात पता चलती है। हेम सिंह का बेटा दुर्घटना में घायल हुआ है और वह उसे देखने जाना चाहता है। गुलबत्ती तत्काल तय करती है और हेम सिंह से कहती है कि उसके गर्भ में उसके पहले पति रंगीलाल का बच्चा है। हेमसिंह उसे प्रेम करता था पर अपने बीबी-बच्चे के पास लौट जाता है। लेकिन गुलबत्ती रंगीलाल के पास नहीं लौटती है। उसे कह देती है, यह बच्चा तुम्हारा नहीं है। 'गुलबत्ती के मन की गहराई किसी ने न पाई।' वह अपनी बचपन की सखी सोगिया से कहती है, 'मैं ही एकर दाई हों, मैं ही एकर दादा।' सोगिया उससे पूछती है, 'तोर मर्द कौन ए गुलबत्ती?' उसका उत्तर है, 'मोर मर्द अबी पैदा नहीं होए ए।' वह अपने होने वाले बच्चे को सच्चा मर्द बनाना चाहती है।
अमृता प्रीतम की 'शाह की कंजरी' एक बहुपठित और बहुचर्चित कहानी है। इसमें एक नहीं, दो मजबूत स्त्रियों को वे खड़ा करती हैं। शाह की कंजरी नीलम और शाहनी दोनों स्त्रियाँ मर्यादाओं से बंधी हुई हैं। यह उस समय की कहानी है जब रखैलों के भी अपने उसूल हुआ करते थे। समाज घर-परिवार के कायदों से बँध कर चलता था। परिवार के उसूलों की सब इज्जत करते थे। कहानीकार नीलम के रूप और गले की वरीयता देते हुए परिवार की मर्यादा को कायम रखती है। 'त्रिशूल' की लड़की कहती है, 'आज तक कुछ और नाम था, आज से मेरा नाम पार्वती है।' क्योंकि वह होने वाले पति का त्रिशूल उठाने के लिए तैयार है, सुनील के पिता के पाप का प्रायश्चित करने के लिए भागीदारी करने का निश्चय कर चुकी है।
किसी-किसी कहानी में उनके अपने जीवन की झलक मिलती है। उन्होंने जो जिया, जो देखा-सुना, अनुभव किया, उसे कहानियों में उतारा है। 'यह कहानी नहीं' एक ऐसी ही कहानी है। इसमें उन्होंने किरदारों का नाम न दे कर स्त्री को केवल 'अ' लिखा है और पुरुष को केवल 'स' नाम से संबोधित किया है। ध्यातव्य है अमृता का नाम 'अ' से प्रारंभ होता है और साहिर का 'स' से। कहानी में 'अ' का एक बेटा है और 'स' की माँ का जिक्र है। उनकी कई कहनियों और कविताओं का रुख रुहानी होता है। 'पच्चीस, छब्बीस और सत्ताइस जनवरी' एक ऐसी ही कहानी है। उनकी कहानियों में भरपूर प्रेम और जिजीविषा मिलती है।
'एक जीवी, एक रत्नी, एक सपना' उनकी एक बहुत छोटी और प्यारी कहानी है, जिसकी अंतिम पंक्तियाँ हैं, 'जीवी का सपना एक उपन्यास के आँसू बन गया और रत्नी का सपना गीतों के तुकान्त तोड़ कर आज उसकी झोली में दूध पी रहा था।' उन्होंने ग्रामीण स्त्रियों को उकेरा है। न केवल पंजाब की, वरन मध्य प्रदेश-छत्तीसगढ़ समाज और जीवन की कहानियाँ भी लिखी हैं। वहाँ की भाषा का प्रयोग किया है। 'गुलियाना का एक खत', 'बू', 'छमक छल्लो ', पाँच बहनें', उघडी हुई', 'जरी का कफन', 'अपने अपने छेद' स्त्रियों को केंद्र में रखकर लिखी गई कहानियाँ हैं। अमृता प्रीतम ने एक स्थान पर लिखा भी है, 'शोहरत किसी को अपने आपको समझने में मदद नहीं करती, और न ही पैसा करता है। लेकिन औरत किसी को अपने आपको समझने में उसी तरह मदद करती है, जिस तरह किसी की कला उसकी मदद करती है।'
स्त्रियों के साथ-साथ उनकी कहानियों में संवेदनशील पुरुष भी चित्रित हैं। 'बू' की गुलेरी अपने मानक से बहुत प्यार करती थी, उसने मानक से विवाह किया लेकिन उनके बच्चा न हुआ। मानक भी उसे बहुत प्रेम करता है। उसे बच्चा न होने का मलाल नहीं है लेकिन मानक की माँ उसके लिए दूसरी बहु ले आती है। यहाँ कहानी बहुत सुंदर तथा संवेदनशील तरीके से मन और शरीर की अवस्था को चित्रित करती है, 'मानक के सभी अंग जाग रहे थे, एक उसके दिल का मांस सोया हुआ था। दिल के सोए हुए मांस उसके जाग रहे अंग सभी स्थानों पर ले गए थे-नई सुसराल में भी और नई बहू के बिछौने पर भी।' 'त्रिशूल' के सुनील के पिता ने अपनी पहली पत्नी और उसके दो बच्चों को छोड़ दिया था। सुनील का विमाता और बड़ा सौतेला भाई मर चुका था। उसे इन सब बातों का बहुत बाद में पता चलता है तो वह अपनी सौतेली बड़ी बहन के साथ न्याय करना चाहता है।
मनुष्यों के अलावा उन्होंने पशु-पक्षियों पर भी कहानियाँ लिखी हैं। 'गौ का मालिक' एक ऐसी ही कहानी है। इसमें पूरी कहानी एक मरती हुई गाय 'कपिला गौ' की ओर से लिखी गई है। एक जहाज हादसे में दस गाएँ मर जाती हैं। मुआवजा लेने बीस लोग आ जाते हैं, लेकिन जब उन्हें पता चलता है कि रन वे पर गाय चराने के जुर्म में उन्हें जुर्माना देना होगा तो सब खिसक लेते हैं। लेकिन मरती हुई कपिला के जिस्म पर कुछ छू रहा था, वह उसका मालिक मोहना नहीं बल्कि, 'उसका बछड़ा पता नहीं कैसे वहाँ आ पहुँचा था, और अपनी जीभ से मरती हुई माँ का जिस्म चाट रहा था।'
बी.बी.सी. को दिए एक इंटरव्यू में इमरोज ने बताया कि अमृता प्रीतम की अंगुलियाँ हमेशा कुछ न कुछ लिखती रहती थीं... चाहे उनके हाथ में कलम हो या न हो। सुन कर 'द पियानिस्ट' फिल्म का एक दृश्य स्मरण हो आया जिसमें पियानो बजाने का दीवाना नायक पियानो न होने पर हवा में पियानो बजाता है, उसकी अँगुलियाँ सदैव पियानो बजाने को आतुर रहती हैं। अमृता भी बिना लिखे नहीं रह सकती थीं। वे टेबल-कुर्सी पर बैठ कर नहीं लिखती थीं, बड़े से बिस्तर पर लिखतीं जहाँ किताबे और लिखने का सामान बिखरा होता।
अमृता प्रीतम को साहिर के जाने पर नर्वस ब्रेक डाउन हो गया था, बड़ी मुश्किल से वे उबरी थीं। उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि जिन्दगी की सबसे उदास प्रेम कविताएँ उन्होंने इसी दौर में लिखीं। यहाँ मुझे पाब्लो नेरुदा की 'बीस प्रेम कविताएँ और एक हताशा गीत' की पंक्तियाँ याद आ रही हैं, '... आज की रात मैं लिख सकता हूँ/दु:ख से उपलाती पंक्तियाँ... आज की रात लिख सकता हूँ, सबसे उदास कविताएँ।'
भारत बँटवारे का दर्द उन्होंने सहा था। बँटवारे के दौरान उनका परिवार दिल्ली आ बसा। वारिस शाह को संबोधित उनकी एक नज्म 'अज्ज आखां वारिस शाह नू' बहुत प्रसिद्ध हुई है। इसमें उन्होंने बँटवारे के दर्द को उकेरा है। इस नज्म को भारत-पाकिस्तान दोनों देशों में सराहा गया। इसे गुलजार के स्वर में यूट्यूब कभी भी पर सुना जा सकता है। गुलजार कभी भी पर सुना जा सकता है। गुलजार ने भी बँटवारे का दु:ख सहा है, वे भी इस दौरान भारत आ बसे। इस दर्द को उकेरती उनकी एक कविता, 'दस्तक' है (जिसके बोल हैं, 'सुबह सुबह एक न ख्वाब की दस्तक पर दरवाजा खुला देखा, सरहद के उस पार से कुछ मेहमान आए हैं...।' इस कविता को अमृता प्रीतम ने गुलजार के मुँह से बार-बार सुना था। दोनों की मैत्री कविताओं के कारण हुई थी। गुलजार कहते हैं कि अंतिम बार साहित्य अकादमी के तत्कालीन अध्यक्ष गोपी चंद नारंग के साथ वे अमृता से मिलने गए, मौका था, उन्हें साहित्य अकादमी का सम्मानित लाइफ टाइम अचीवमेंट पुरस्कार देने का। इस अवसर पर गुलजार बहुत दु:खी थे क्योंकि अमृता प्रीतम न तो किसी को पहचान पा रही थीं और न ही कुछ बोल पा रही थीं। इमरोज ने तब कहा था कि इस तरह के पुरस्कार किसी को तब दिए जाने चाहिए जब वह उसका महत्व समझ सके। कृष्णा सोबती के संदर्भ में ऐसा हुआ भले ही यह किसी अन्य पुरस्कार समिति ने किया। कई बार नोबेल पुरस्कार समिति भी ऐसा ही करती है, इस विषय पर साहित्यकारों ने अपने नोबेल भाषण में कहा भी है। अमृता प्रीतम को साहित्य अकादमी (1956, वे यह पुरस्कार पाने वाली पहली स्त्री साहित्यकार थीं) और ज्ञानपीठ पुरस्कार (1982) उनके काव्य के लिए मिला। उन्हें देश-विदेश के तमाम पुरस्कार व सम्मान प्राप्त हुए।
अमृता प्रीतम का हृदय बहुत उदार था। वे नए और अनजान कवियों को भी बढ़ावा देती थीं, खासकर पंजाबी कवियों को। गुलजार को उन्होंने अपनी पत्रिका में प्रकाशित किया। वे नई प्रतिभाओं को पहचान कर उन्हें बढ़ावा देती थीं। जब दीप्ति नवल मात्र 20 साल की थीं, कवयित्री के रूप में उनकी कोई प्रसिद्धि न थी, उस समय बासु भट्टाचार्य ने दीप्ति का परिचय अमृता से करवाया। दीप्ति ने सकुचाते हुए उन्हें अपनी कविताएँ दिखाई। अमृता ने न केवल उन कविताओं की प्रशंसा की, वरन अपने प्रकाशक से बात कर संग्रह 'लम्हे लम्हे' निकलवाया। दीप्ति नवल एक बहुत प्रवीण अदाकारा हैं। उन्होंने सैफ हैदर हसन के नाटक 'एक मुलाकात' में अमृता की भूमिका की है और इस नाटक में साहिर का गंभीर रोल शेखर सुमन ने निभाया है। इस नाटक के बीस प्रदर्शन मुंबई में हुए तथा एक दुबई में हुआ। दीप्ति ने इस नाटक में अमृता की कविताओं को पंजाबी में ही प्रस्तुत किया है। दर्शकों ने इसे खूब सराहा, जिन दर्शकों का हाथ पंजाबी में तंग था, उन्हें भी नाटक की आत्मा ने आडोलित किया, नाटक उनके दिल तक पहुँचा। इसके पूर्व फिरोज अब्बास खान के अभिनेता द्वय (शबाना आजमी तथा फारूख शेख) ने 'तुम्हारी अमृता' दर्शकों के बीच खूब लोकप्रिय हुआ। इसके दुनिया भर में 300 से ऊपर प्रदर्शन हुए। अमृता एक शर्मीली और शांत प्रकृति की स्त्री थीं, लेकिन खूब मजबूत। इस व्यक्तित्व को 'एक मुलाकात' में दीप्ति नवल ने मंच पर साकार किया है। साहिर की भूमिका में शेखर सुमन खरे उतरते हैं। इसका प्रदर्शन अन्य शहरों में भी हुआ।
अक्षर आकाशधर्मा होते हैं, सीमा का असीम विस्तार, किसी सीमा को न मानने वाले। राजनीतिज्ञ भले ही देश को बाँटते रहें लेकिन साहित्यकार और संस्कृतिकर्मी सदैव दिलों को जोड़ने की बात करते हैं। साहित्य सीमाओं के बंधन तोड़कर दूसरे देशों, दुश्मन माने जाने वाले देशों में भी पहुँचता है। अमृता प्रीतम का साहित्य पड़ोसी देश पाकिस्तान में भी सराहा जाता रहा है। वहाँ 2017 में 31 अक्टूबर, उनके मृत्यु दिवस पर वर्ल्ड पंजाबी कांग्रेस ने एक पूरे दिन का कार्यक्रम आयोजित कर अमृता को स्मरण किया, जिसमें पंजाबी के जाने-माने रचनाकारों ने शिरकत की। वीजा न मिलने के कारण भारतीय डेलीगेशन न पहुँच सका। हाँ, उनकी आवाज सुनाई गई, उनके बनाए वीडियो दिखाए गए। इस कार्यक्रम में उन पर तथा उनके कार्य पर कई वीडियो दिखाए गए जिसमें बासु भट्टाचार्य तथा राज्यसभा टी.वी. की डॉक्यूमेंट्री भी शामिल थी।
31 अक्टूबर, 2005 को अमृता प्रीतम गुजर गईं। बकौल इमरोज, 'उसने जिस्म छोड़ा है, साथ नहीं।' पाठकों और समीक्षकों के लिए उनके छोड़े साहित्य का साथ सदा बना रहेगा। इस साल हम उनकी शताब्दी मना रहे हैं, अगली कई शताब्दियों तक वे अपने लेखन में जीवित रहेंगी
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