कटघरे में पत्र

हाल ही में ह्यूमन राइट्स ला नेटवर्क ने प्रेस क्लब ऑफ इंडिया, इंडियन वुमेन प्रेस कम, मुम्बई प्रेस क्लब, दिल्ली यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट और मीडिया स्टडीज ग्रुप के साथ मिलकर एक देशव्यापी अध्ययन किया है, और यह समाज, लोकतंत्र, अभिव्यक्ति, नागरिक अधिकार और जनहित के सवालों के लिए सरोकार रखने वाले सजग नागरिकों, बुद्धिजीवियों, लेखक-पत्रकारों, समाजकर्मी, संस्कृतिकर्मि संगठनों और समूहों को कई जानकारियाँ देने वाला अध्ययन है।


'साईलेसिंग जर्नलिस्ट इन इंडिया' नाम से आये इस अध्ययन के अनुसार सन् 2000 से 2018 के बीच कुल 65 पत्रकारों की उनके लेखन के कारण हत्या हुई जिनमें सबसे ज्यादा हत्याएँ उत्तर प्रदेश में हुई। ये हत्याएँ बेगलुरु से लेकर कश्मीर तक हुईं। इस अध्ययन से यह बात भी सामने आई है कि कुल 12 राज्यों में 31 पत्रकारों पर उनके लेखन को लेकर मुकदमे चल रहे हैं।


यह अलग से कहना जरूरी है कि इन हत्याओं में 'राइजिंग कश्मीर' के संपादक की हत्या भी शामिल है जो आतंकवादियों के खिलाफ लिखने के कारण आतंकवादियों की गोलियों के शिकार हुए थे।


यहाँ यह बात भी ध्यातव्य है कि यह एक निष्पक्ष अध्ययन है और इसमें सन् 2000 से 2018 के बीच की अवधि को दायरे में लिया गया है जिसमें परस्पर-विरोधी दलों की सरकारें थीं।


हाल ही में देश की 49 ख्यातिप्राप्त शख्सियतों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज होने का प्रसंग भी एक ध्यान खींचने वाला प्रसंग है। इन शख्सियतों ने जिनमें इतिहासकार रामचंद्र गुहा, फिल्मकार श्याम बेनेगल, मणिरत्नम, अनुराग कश्यप, सौमित्र चटर्जी, अर्पणा सेन, शास्त्रीय संगीत गायिका शुभा मुद्गल जैसे जाने-माने नाम हैं, माननीय प्रधान मंत्र के कार्यालय को 23 जुलाई, 2019 को लिखे गये अपने पत्र में भीड़ द्वारा हिंसा को एक गंभीर मामला बताते हुए चिंता जाहिर की थी और इसकी रोकथाम का अनुरोध किया था। इस पत्र को आधार बनाते हुए मुज्जफ्फरपुर के एक अधिवक्ता द्वारा चीफ जूडिशियल मजिस्ट्रेट के न्यायालय में परिवाद दायर किया गया था और इन शख्सियतों के विरुद्ध देशद्रोह, उपद्रव, धार्मिक भावनाओं पर आघात और शांति में बाधा के आरोपों के लिए मुकदमा चलाने का अनुरोध किया गया थाचीफ जूडिशियल मजिस्ट्रट द्वारा सुनवाई के बाद पुलिस को आदेश दिया गया था कि वह प्राथमिक दर्ज करे और कारवाई करे। जाहिर है, ये गंभीर आरोप हैं और कानून के मुताबिक यदि इस मामले में माननीय उच्च न्यायालय का हस्तक्षेप नहीं हो तो जिनके विरुद्ध आरोप लगे हैं, उनकी गिरफ्तारी हो सकती थी।


यह गौरलब है कि भारत के लोकतांत्रिक राज्य बनने के बाद से ही त्रस्त व्यक्तियों, समूहों, संगठनों, समाजकर्मियों द्वारा सार्वजनिक समस्याओं या लोकहित के मसलों को लेकर महामहिम राष्ट्रपति, माननीय प्रधानमंत्री, राज्यों के मुख्यमंत्री, राज्यपाल, उच्चाधिकारियों और कभी-कभी माननीय उच्च न्यायालयों को भी आवेदन या पत्र भेजने का चलन रहा है। ये पत्र सम्बंधित कार्यालय द्वारा प्रासंगिक विभागों को कार्रवाई के लिए भेजे जाते रहे हैं। माननीय उच्च न्यायालय ने तो कई बार ऐसे पत्रों या आवेदनों को याचिका मान लिया है और उस पर सुनवाई की है। स्पष्टतः उपर्युक्त 49 ख्सियतों द्वारा भेजा गया पत्र भी इस परम्परा और चलन की ही एक कड़ी था और जिस तरह ऐसे पत्र के लिए पहले कभी कोई कार्रवाई नहीं हुई है, इस पत्र को लेकर भी कोई कारवाई अपेक्षित नहीं हो सकती थी।


__ यहाँ एक पक्ष नागरिकों के अधिकारों का भी है। ख्यातिप्राप्त शख्सियतों की यह जिम्मेवारी भी होती है कि वे अपने क्षेत्र में काम करने के साथ समाज से अपना जुड़ाव भी जाहिर करें और प्रमुख मसलों पर समाज के साथ अपनी प्रतिबद्धता दिखाएँ। संविधान इसकी गुंजाइश देता है कि कोई नागरिक शालीनता और मर्यादा के दायरे में रहकर अपनी चिंताओं को अभिव्यक्ति दे और यदि वह असहमति व्यक्त करना चाहता है तो असहमति भी व्यक्त करे। संविधान यह अधिकार देता है और इसकी सुरक्षा भी करता है। उपयुक्त 49 शख्सियतों का पत्र संविधान प्रदत्त अधिकारों के दायरे में ही है।


यहाँ उल्लेखनीय है कि प्राथमिकी का दर्ज होना सरकार द्वारा की गई कार्रवाई नहीं थीयह पूरी कार्रवाई एक नागरिक के रूप में एक अधिवक्ता द्वारा चीफ जूडिशियल मजिस्ट्रेट के न्यायालय में दायर किये गये परिवाद पर खड़ी हुई थी। प्राथमिकी दर्ज करने का आदर्श चीफ जूडिशियल मजिस्ट्रेट का था। समाचार पत्रों में अभियोजन की जो खबरें छपी है, वे तथ्यपरक वहीं थीं। यह मामला सिर्फ पुलिस द्वारा की जाने वाली जाँच के हवाले हआ था, अभियोजन आरोपों के तथ्यपरक पाए जाने पर होता।


यह सर्वज्ञात तथ्य है कि देशद्रोह का कानन अंग्रेजों के द्वारा बनाया गया कानन है और इसी कानून के तहत अंग्रेजी सरकार द्वारा राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को गिरफ्तार किया जाता रहा था। यह कानून खत्म तो नहीं हुआ है लेकिन माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह व्यवस्था जरूर दी है कि इसका उपयोग सिर्फ उसी स्थिति में होगा जब राज्य के खिलाफ अस्त्र-शस्त्र उठाये जाएँगे या हिंसा की जाएगी। चूंकि इस पत्र में भीड़ द्वारा की जा रही हिंसा की घटनाओं पर चिंता जाहिर की गई थी और पर्याप्त कार्रवाई का अनुरोध किया गया था, इसलिए यह देशद्रोह के दायरे में लाए जाने के योग्य था भी नहीं। सभी अखबार या मीडिया इसकी पुष्टि भी करते हैं कि देश में भीड द्वारा हिंसा की कई घटनाएँ घटित हुई हैं


यहाँ यह भी गौरतलब है कि यह असमाजिक तत्वों या समाजविरोधी समूहों को इस आशय से लिखा गया पत्र नहीं था कि वे हिंसा करे, प्रतिकार करें या अव्यवस्था फैलाएँ। यदि ऐसा होता तब इन 49 शख्सियत के खिलाफ उपद्रव, धार्मिक भावनाओं पर आघात या शांति में बाधा के आरोप उपयुक्त ठहरते। वस्तुत: यह देश की कार्यपालिका के सर्वोच्च प्रधान मंत्री को इस आशय से लिखा गया पत्र था कि ऐसी हिंसा रूके, समाज में धार्मिक और सांप्रदायिक सद्भाव और शांति बहाली हो।


यह सुखद स्थिति रही कि वरीय पुलिस अधीक्षक ने आवेदनकर्ता के आवेदन को शरारतपूर्ण और सस्ती लोकप्रियता के लिए किया गया कदम माना और मामले को बंद कर देने का आदेश दिया है। कहने की जरूरत नहीं कि लोकतंत्र की अनिवार्यता है कि सार्वजनिक अभिव्यक्ति और असहमति के प्रकटीकरण को प्रोत्साहन मिले ताकि शीर्ष पर स्थित व्यक्तित्वों को सत्ताधारी दल से नहीं जुड़े लोगों के भी मानस और चिंताओं को जानने का अवसर मिले। जांच, मुकदमे या गिरफ्तारी सार्वजनिक अभिव्यक्ति और असहमति के प्रकटीकरण पर अनपेक्षित दबिश बनाने का ही काम करते हैं।