अनेक देश : असंख्य परेशान लोग ---डॉ. तरसेम गुजराल

आज पूरी दुनिया के अधिकांश मुल्कों के लोग किसी न किसी तरह के डर और अनिश्चय में जी रहे मालूम पड़ते हैं। एक गीत में कहा गया-सीने में को जलन आँखों में तुफान सा क्यों है, इस शहर का हर शख्स परेशान सा क्यों है? शहर की जगह दुनिया कह लें तो बात कुछ सरल हो जाती है। चीजों ळ माल हो जाती है। नीलों के असली हकदार अधिकांश जगह हक से वंचित किये जा रहे हैं। शोषण बुनियादी चीजों की तरफ सोचने के लिए विवश करता हैदमनकारी राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक हालात सहज जीवन जीने नहीं देते। मोटे तौर पर एक विभाजक रेखा नजर आ सकती हैएशिया, लातीन अमेरिका और अफ्रीका के जनसमूह एक तरफ. यरोप, अमेरिका और आस्ट्रेलिया दसरी तरफ जो प्रवासी श्रम शक्ति पर ही विकसित है परन्तु संसाधनों के समय वंचित। दस्तावेजी फिल्म निर्माण के मकसद से अलग-अलग देशों के भ्रमण के समय कथाकार, फिल्मकार सुरेन्द्र मनन ने फिलस्तीनियों का दर्द, कम्बोडिया की विडम्बना, विएना, मॉरिशस, मलेशिया, रूस की जनता के असन्तोष, राजनीतिक विडम्बना. असंतोष की कचोट, अधूरेपन के अहसास को निकटता से महसूस किया किया और 'अहमदअल-हलो, कहाँ हो?' किताब में दर्ज किया। 'ओह कम्बोडिया।' रचना में जहाँ भिक्षुक प्रार्थना बुदबुदा रहा है-'तम्हें स्वर्ग की प्राप्ति हो। तुम्हारा पनर्जन्म किसी शांतिप्रिय देश में हो।' उसके सामने दीवार पर एक नक्शे का खाका बना है जिसमें छोटे-बड़े आकार की अनेकों खोपडियाँ अंकित हैं। दीवार पर बना नक्शा कम्बोडिया का है जो सन् 1979 से पहले कम्पूचिया था और यह जगह बदनाम जेल-एसन्श है। जिन खोपड़ियों के लिए बोध भिक्षु प्रार्थना कर रहा है वे उन कैदियों की हैं जो क्रूर यातनाओं की फलन पाने के कारण इस जेल में दम तोड़ गए। 'पैंतीस साल का लम्बा अरसा गुजर चुका है लेकिन एसन्श में मारे गए (जेल में) सत्रह हजार लोगों की भटकती आत्माएँ शांत होने में नहीं आ रही। अंधेरा उतरते ही जेल में मंडराने लगती हैं। हवा के झोंकों के साथ गलियारों में चीखती-चिल्लाती इधर से उधर भागती हैं।' 'जब और कोई नहीं बोलता तो भूत बोलते हैं। पंक्ति वाचक के जहन में थी जब जेल एसन्श से बाहर निकला जिससे सामने का पूरा परिदृश्य बदल रहा था। हर स्थान, स्थल बाजार बस्ती को नया रूप दिया जा चुका था। यातायात से भरी सड़क, अन्तर्राष्ट्रीय कम्पनियों के सजे शोरूम सभी कुछ की रंगत बदल गई थी। पहले वाचक के पास सूचना थी कि पोल पॉट शासन के दौरान वह एक बदनाम जेल रही है। जहाँ हजारों कैदियों को यातनाएँ देकर मारा गया था और यहाँ तैनात कर्मचारियों ने प्रशासन से निवेदन किया था कि भटकती आत्माओं की शांति के लिए उचित व्यवस्था की जाए। लेखक ने चुप्पी के वर्णक की किस्म लखक न चुष्णा जाहिर की जिसके परिणाम और प्रभाव में फक हाता ह।' चुप्पा कमा भा फर्क होता है।' चुप्पी कभी भाषातिरेक से पैदा होती है और कभी दहशत से जन्म लेती है। किन्तु जिस चुप्पी में लेखक था उसमें कैदियों की चीखों का बवंडर थाउनके सामने एक दस्तावेज था जिसके नीचे टिप्पणी थी। 160 बच्चों को भी मारा गया। कुल 278 शत्रुओं का सफाया किया गया। पोल पॉट जैसा व्यक्ति जब सत्ता पर कब्जा करता है तो कैसे वह अपना चौखटा तोड कर इस तरह फैलने लगता है कि अन्य सभी को अच्छा दिन कर लेता है। बाहें फैला कर वह बाकी सबको अपनी बाहों के दायरे में लपेट लेता है। कैसे उसमें यह बलवती भावना जन्म लेती है कि हजारों, लाखों. करोडों लोगों का एकमात्र रहनुमा सिर्फ वही हो सकता है और है। सबकी तरफ से वह स्वयं निश्चित करता है कि क्या होना चाहिए. क्या नहीं और किस तरह से होना चाहिए। वह यह दृढ़ विश्वास अर्जित कर लेता है कि अन्य सब सिर्फ हांके जाने के काबिल हैं। (ओह कोम्बडिया, पृ.सं. 33)


पोल पॉट ने सन् 1975 को शून्य वर्ष घोषित कर दिया था। उसने यह निर्णय लिया कि कम्पूचिया में सैकड़ों वर्षों से जो होता चला आया है। अब तक जिस तरह की इंसानी नस्लें पैदा होती आई है। आज तक जो इतिहास रहा है वह सन् 1975 तक आकर खत्म हो गया है। इस बिंदु से एक नया समय शरू होगा। इस नए समय में नए किस्म के इंसान होंगे और एक नया इतिहास रचा जाएगा


वाचक ने सही कहा कि एक निरंकुश सत्ताधारी जितना बर्बर होता है उतना ही डरा हआ है। वह हर व्यक्ति को संशय से देखता है। हर सरके से चौकता हैसरेन्द्र मनन अत्याचारी राजनीति की भीतरी तहों को खोलते हैं और मनष्य विरोधी शक्तियों की पहचान कराते हैं। अर्थपर्ण जीवन की तरफ सोचना. जाना। (सरेन्द्र मनन की किताब अहमद अल इलो कहाँ हो?)


एक रचनाकार की रचना प्रक्रिया में ऐसी वेगमयी भावनात्मक धारा बहने लगती है जो विधाओं के खांचे किनारे तोड कर बहने लगती है। हालांकि ऐसा सदा सर्वदा नहीं होता किन्त जब होता है तब परम्परावादी आलोचक मुंह बाये देखता रहता हैऐसा जोखिम उठाकर जो कछ प्राप्य होता है. वह ताजगी और नयेपन की सगंध देता हैक्योंकि सावधानी से ली गई डुबकी के बिना खजाना हाथ नहीं आतासावधानी को सजगता के अर्थ में ग्रहण करें तो आसान रहेगाएक जागरूक समय के सजग लेखक को उसे खोजने पाने के लिए कहीं जाना नहीं पडता यह अन्तर्निहित ही होती है।


कथाकार फिल्मकार संपादक सरेन्द्र मनन की नई किताब, अहमद अल-हलो. कहाँ हो?' से गुजरते हए ऐसा ही लगा। ई सरेन्द्र मनन इससे अनभिज्ञ नहीं कहा-इस किताब में संकलित रचनाएँ पारम्परिक और रूढ़ अर्थ में न तो संस्मरण हैं, न शुद्ध कथाएँ, न यात्रा वृतांत और न ही शोध पत्र सा कहें कि हर विधा के चौखटे में कसमसाती और काई माकूल मंजर न मिल पाने की बेकसी और बेबसी में किसी नए रूप की तलाश और एक नई सूरत अख्तियार करने को व्यग्र रचनाएँ हैं जिनकी रचना भूमि एशिया, अफ्रीका से लेकर यूरोप तक फैली है।'


लगभग यही दिक्कत सात आठ साल पहले आई राजेश जोशी की किताब 'किस्सा कोताह' लाते हुए राजेश जोशी की थी। 'अव्वल तो यह समझना मुमकिन नहीं कि सौ सवा सौ पृष्ठों में फैली यह चीज क्या है। हाँ एक हद तक यह बताना आसान है कि यह क्या नहीं है। मसलन यह उपन्यास नहीं है। आत्मकथा नहीं हैशहरगाथा नहीं है और कोरी गप्प भी नहीं है। लेकिन यह इन्हीं तमाम चीजों की गपड़तान से बनी एक किताब है।'


गपड़तान से बनी एक किताब है।' विधाओं के टूटने एक-दूसरे में शामिल हो जाने का कोई रंज, दु:ख नहीं होगा जब आप एक रचनाकार के हाथों कुछ ऐसा पाएँगे तो जीवन स्पंदित हो, जीवन संघर्ष को रेखांकित करे, सामाजिक राजनीतिक सांस्कृतिक चेतना से विस्मृत न हो और इतिहास सजग हो। सुरेन्द्र मनन की इस किताब में ऐसा बहुत कुछ है जो इन खूशियों के बहुत करीब है।


अहमद अल हलो, कहाँ हो? रचना उस पीड़ादायक ऐतिहासिक खंड से रु-ब-रु करवाती है जो फिलिस्तीन के आधुनिक यथार्थ से सम्बद्ध है। नासिर कहता है-हम रेत में चल रहे हैं। गहरी रेत में। समझ रहे हैं आप? हमारे पैर चल रहे हैं गहरी रेत में। समझ रहे हैं आप? हमारे पैर चल रहे हैं लेकिन हम कहीं नहीं पहुंच रहे हैं। हम पिछले साठ साल से इसी तरह चले जा रहे हैं। वाचक के लिए यह जानकारी के स्तर पर ही था कि फिलस्तीनी शरणार्थी विश्व में अन्य सब शरणार्थियों से सबसे अधिक संख्या में हैं और कि उनकी समस्या का अभी तक कोई हल नहीं निकल पाया।' वास्तविक त्रासदी उनके करीब जाकर पता चली। 'दिल्ली में तो उनका सिर्फ एक छोटा-सा हिस्सा था। बगदाद से बाहर बसरा, मॉसिल, सेयिद के छोटे-छोटे कैम्पों में ही नहीं ये शरणार्थी हजारों की तादाद में सीरिया, जोर्डन की सीमाओं पर बने कैम्पों में झुलसा देने वाली गर्मी और कड़कड़ाती सर्दी में महीनों से पड़े थे। उनका वर्तमान उजड़ चुका था और भविष्य बिल्कुल अनिश्चित था। कैंपों में वे कब तक इस हालत में रहेंगे, नहीं जानते थे। इसके बाद कहाँ जाएँगे, इसकी भी उन्हें कोई खबर नहीं थी।'


भी उन्हें कोई खबर नहीं थी।' (अहमद अल-हलो, कहाँ हो?, पृ.सं. 17)


अहमद जान जोखिम में डालकर बगदाद जाना चाहता है। अक्सर महमूद दरवेश की एक कविता की पंक्तियाँ दुहराता है


'घेराबंदी, इंतजार की एक अवधि है तूफान के बीच अटकी हुई एक टेढ़ी सीढ़ी पर इंतजार!' महमूद दरवेश ने जो काव्य के स्तर पर अभिव्यक्त किया. एडवर्ड सईद ने चिंतन के धरातल पर 'सईद वर्चस्वी पश्चिमवाद को प्रश्नांकित करते हैं उसकी प्राप्यवादी निर्मितियों को पराजित करते हैं। उनका चिन्तन उत्तर औद्योगिक पूँजीवादी स्थितियों में विकसित हुआ


अहमद से वाचक की मुलाकातों का सिलसिला वाचक की अँगली पकड कर ऐसे मुकाम तक ले गया जहाँ वह उन लोगों के आहत मन की परतों में झांक कर वहाँ उठ रहे बलबलों को महसस कर सके। 'तभी मुझे एकहसास हो पाया कि उन गहराइयों में उतरे बिना और उनकी चाह पाए बिना इन बेशिनाख्त कर दिए गए इंसानों के संकट और उसकी कचोट को समझ पाना लगभग असंभव ही है और यह भी कि इस समझ के बिना मानवीयता, नैतिकता, स्वतंत्रता, सभ्यता जैसी अवध रणाएँ कोरा पाखंड हैं।'


सहाय हसेन का तख्तापलट उसे सहाय हसेन का तख्तापलट उसे विस्थापित कर गया 'इराक में दशकों से रहते आए फिलस्तीनी शरणार्थियों को चुन-चुन कर खदेड़ा जा रहा था। अहमद का परिवार लापता था। उसके दोस्त इसके अलावा और कुछ नहीं कर सकते थे कि किसी तरीके से उसे इराकी बार्डर सुरक्षित पार करवा दें।' अहमद बगदाद से दिल्ली के लिए भेज दिया गया। बगदाद छोड़ कर इस तरह भागा जैसे साठ साल पहले उसका दादा उसके बाप को साथ लेकर फिलस्तीन से भागा था।


दिल्ली की चहल-पहल, भागमभाग और शोर-शराबे के बीच ये लोग बिल्कुल बेगाने, नाकारा, निष्क्रिय होकर अंधेरे कमरों में डरे-सहमे दुबके हुए थे।' विस्थापन के साथ इन लोगों में से अधिकांश पारिवारिक विभाजन भी झेलने को विवश थे।


'उस कमरे में बारह लोग थे और सब बगदाद में अपने परिवारों से बिछड़ कर आये थे। नासिर खुद तो किसी तरह जान बचा कर छोटे बेटे के साथ भाग निकला था लेकिन बड़ा बेटा वहीं छूट गया था। यास्मीन दो बेटियों को लेकर यहाँ पहुँच गई थी और पति बगदाद में था, हसन को एजेंट ने जहाज में बिठा दिया था लेकिन उसका भाई एयरपोर्ट के बाहर ही पकड़ा गया।


बाहर ही पकड़ा गया। (अहमद अल-हलो, कहाँ हो?, पृ.सं. 16)


आज वैश्विक राजनीति सांस्कृतिक चेतना से बाहर होती चली जा रही है। सुरेन्द्र मनन इस प्रकार के उत्खनन से बाहर नहीं है। वे पुनर्वास के लिए खुद किसी मुल्क का चुनाव नहीं कर सकते। यह उनके बस का नहीं। 'कुल मिला कर नतीजा यही निकलता था कि न तो ये अभागे खुद कुछ कर पाने की स्थिति में थे, न ही कोई और उनके लिए कुछ करने को लालायित था। सबके पास अपने-अपने कायदे-कानून थे। सभी तर्कशील थे। सभी के पास औचित्य था। सभी जायज थे। सबका लक्ष्य मानवीय अधिकार की रक्षा और मानव जीवन की गरिमा को बरकरार रखना था। फिर भी ये लोग उनकी नज़र के दायरे से बाहर थे या ये मानव थे ही नहीं? दरअसल नहीं थे। वे सिर्फ शतरंज के मोहरे थे। क्षेत्रीय, राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय राजनीति और डिप्लोमेसी के खेल में बिसात पर रखे मोहरे' जो हर्गिज अपनी इच्छा से नहीं चल पा रहे थे। दाँव कुछ अदृश्य शक्तियों का था जिसके मुताबिक चलना उनको था। रचना अहमद के देहांत के साथ खत्म होती है। जैसे उसी/उनकी मौत/मौतें कब्रिस्तान में सवाल बन गूंजती हो।


जब फिल्म के व्यापक प्रभाव को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम की चुनौती सुरेन्द्र मनन के सामने भी तब उसने दस्तावेजी फिल्म को चुना। जब रचना का सवाल सामने आया उसने अर्थपूर्ण जीवन चुना। जो यथार्थ में नहीं था परन्तु उसकी तरफ जाना, सोचना अनिवार्य था।


नदियों को यदि सांस्कृतिक जीवन धाराएँ मानी जाए तो हमारे विकसित हो रहे मुल्क, मुल्क के वाशिंदों ने इसकी जी भर कर उपेक्षा की है। सुरेन्द्र मनन की रचना 'पवन गुरु पानी पिता माता धरत महल' जीवन की बड़ी जरूरत पानी के अभाव और धरती को जहरीला बनाने वाले लोगों पर निशाना साधने के लिए ही है। इसी रचना को प्रभावशाली दस्तावेजी फिल्म में भी उतार पाए हैं। वह शहरीकरण और बेपरवाह औद्योगिकरण के सामाजिक ढाँचे पर कुप्रभाव को ठीक से समझ रहे थे।' दोआबा वासियों (पंजाब) का बेई नदी के साथ पवित्र और अंतरंग सम्बंध था, उस पर काली छाया तभी से पड़नी शुरू हुई, जब से पंजाब में तेजी से औद्योगिककरण और शहरीकरण की प्रक्रिया शुरू हुई। यह एक ऐसी अंधी दौड़ थी। जिसमें पंजाब का पारम्परिक जीवनयापन का ढंग और सामाजिक ढांचा छिन्न-भिन्न हो गया। विकास और आधुनिकीकरण की धुन में दौड़ रहे लोगों ने उस अभिशाप की ओर से आँखें मूंद लीं। जो औद्योगिकरण अपने साथ लेकर आता है और इस अंध पन में धीरे-धीरे वे अपने परिवेश की पहचान ही खो बैठे। वे अपनी हवा, पानी, धरती से विमुख हो गए और उनके व्यवहार में अपने वातावरण के प्रति ऐसी विवेकहीनता पैदा हुई है, जिसे सिर्फ अपराध की संज्ञा ही दी जा सकती थी।' (अहमद अल-हलो, कहाँ हो?, प्र.सं. 67)


अनुपम मिश्र समाज में आई व्यापक निष्क्रियता को समझते थे जिसका दंड समाज को भुगतना पड़ा, भुगतना पड़ सकता है। योगिता शुक्ल के साथ एक साक्षात्कार में स्वयंसेवी संस्थाओं पर टिप्पणी करते हुए कहा-'स्वस्थ समाज में स्वयंसेवी संस्थाओं की जरूरत नहीं। उसके अपने ऐसे संगठन है जिनमें से वह अपने को चलाये रखता है जैसे ओरण वगेरह की बात है। तलाब हैं। गाँव में इतने सारे तालाब थे, मरुभूमि में सब जगह। इनको किसी स्वयंसेवी संस्थाओं ने नहीं बनाया था। आज से 50-100 साल पहले। लोग अपने आप बनाते थे। उनको कैसे बनाना है, कैसे उसकी योजना तय करनी है, उसके लिए पैसा कहाँ से लाना है इत्यादि। इसके लिए विश्व बैंक से पैसा नहीं आता था। कहीं दूसरी जगह से नहीं लाना पड़ता था। समाज ही सबसे बड़ी संस्था होती है, दो राज्य से भी बड़ी संस्था होता है।'


अपने प्राकृतिक संसाधनों को तबाह करने वाले, अपने पाँव पर कुल्हाड़ी चलाने वाले तबके को कठघरे में लाते हुए कहा-'नित नये खुल रहे कारखानों के रासायनिक वेस्ट को ठिकाने लगाने की समस्या आई, तो वह भी बेई (नदी) में समाने लगा। यह चलन ऐसा चला कि अब हर तरह की गंदगी का विकास बेई में किया जाने लगा। अस्पतालों का जहरीला पानी, .... का कचरा-चमड़ा, डेयरियों की गंदगी-गोबर, गाँवों-कस्बों का कूड़ाकरकट सब कुछ बेई में दिन-रात फेंके जाने लगा। बेरोक-टोक।'


'एक के बाद एक हो रहे इन हमलों से बेई बच न पाई। और अंततः वह मर गई। 160 किलोमीटर लम्बी जीवनदायिनी नदी का शव चित्त पड़ा था।'


बेई नदी के पिछले सम्बंधों पर बात करते हुए कहा कि इसी बेई के सानिध्य में गुरुनानक ने अपने जीवन के 14 बरस बिताए थे। इसी नदी में डूबकी लगाई थी और इसी के किनारे बैठ जप-तप किया था।


दोआबा क्षेत्र में संत बलबीर सिंह दोआबा क्षेत्र में संत बलबीर सिंह सींचेवाल 'सड़कों वाले बाबा' के नाम से प्रसिद्ध हो रहे थे। वह सेवादारों के साथ किसी भी गाँव में पहुँच कर रास्ता बनाते, रास्ता पक्का करके सड़क बनाते, बिना कुछ माँगे। वहीं, सुल्तानपुर पहुँच कर मृत पड़ी बेई को नया जनम देने का निर्णय लिया। कहा बेई को बहाल करने का काम शुरू करने जा रहे हैं, जिसको साथ चलना हो चले। लोग अचरज से देखते रहे कि बाबा खाली हाथों से उजड़ी बेई में से सूखी बूटी, कूड़ा-कर्कट निकाल रहे हैं। संकल्प के आगे चमत्कार होता है। संत के फैसले से जागरूक हुए लोग शामिल हो गए और बदलाव दीख गया। साल दर साल काम जारी रहा। नदी के प्रवाह के लिए पक्के घाटों का प्रबंध हुआ। अनथक कोशिश की जीत हुई। बेई फिर से जी उठी।


परन्तु पर्यावरण का पाठ समाज में सजगता से पढ़ा जाने वाला है। आप आने वाली पीढ़ियों को कैसा संसार देना चाहेंगे? सवाल सामने है, इस रचना के जरिए। 


बेहतर जीवन स्थितियों में रहने जीने की अतृप्त ख्वाहिश लिए अविकसित अर्द्ध विकसित देशों के लाखों लोग विकसित देशों में काम की तलाश और रहने की गुंजाइश ढूंढने के लिए लाखों लोग पलायन करते हैं। भारत उनमें किसी भी तरह कम नहीं। सीधे वैध तरीके से जाना संभव हो तब, टेढे जोखिम वाले अवैध तरीके से जाना हो तब भी।


'पहला गिरमिटिया' उपन्यास में मोहनदास (गांधी) की नींद यह सोच कर उड गई थी-'इतने लोग, व्यवसाई, गिरमिटिये अरहमार के कीचड में लथपथ, फिर भी जी रहे हैं... यह रोटी की तीर्थ यात्रा है, मरना-जीना भर इसी में है।' (गिरीराज किशोर)


(गिरीराज किशोर) 'छाया संसार' रचना इसी जोखिम और पसीने में चमकते चेहरे की मार्मिक दशा है। अंतरंग भाव से अपना किस्सा सनाने वाला बचित्तर सिंह सचमच विचित्र है जिसकी बिखरी बातचीत में भरोसा भरी दुश्वारियाँ हैं। उसे लकीर पर लाने के लिए बार-बार टोकना पड़ता है।


'मतलब, असली कहानी तब शुरू हुई जब मास्को से युक्रेन के लिए रवाना हुए।' 'हांजी वीर जी, मॉस्को में चौदह दिन तक इंतजार करने के बाद डौंकी लगी थी यूक्रेन की वैन में चारों तरफ से बंद हम दिन-रात सफर करते रहे। कब दिन चढ़ा कब रात हुई, कुछ पता नहीं। एक जगह हमें नीचे उतार दिया गया जहाँ से आगे का रास्ता सारी रात पैदल चल कर पार करना पड़ा। इस तरह हमने युक्रेन का बार्डर पार किया।


वाचक 'डोंकी' शब्द से परिचित। एजेंटों द्वारा एक देश से दूसरे देश की सरहद में मानव-तस्करी के लिए यह शब्द कोड के रूप में इस्तेमाल किया जाता था। गैरकानूनी ढंग से सीमा में घूसने के लिए टोली में शामिल लोगों का गुप्त रूप से सफर शुरू होता तो कहा जाता कि उनकी डौंकी लग चुकी है। यह सफर आसान नहीं था, 'वहाँ पहुँचाने के लिए एजेंटों ने हमें मिलट्री की जैकटें पहना दी थीं, लेकिन थोड़ी दूर ही गए थे 'कि सामने से उनकी मिलट्री के जवान आते दिखाई दिये और एजेंट हमें वहीं छोड़ कर भाग खड़े हुए। हम भी जंगल की तरफ भागे।' सारी रात जंगल में छिपे रहे। सुबह जब हल्की-हल्की रोशनी हुई तो देखा पास में ही नदी बह रही थी। हम नदी के बीच बैठ गये कि वहाँ सेफ रहेंगे। सारा दिन वहीं एक चट्टान पर बैठे रहे।' वहाँ भरपूर सर्दी थी। ठंड से बचने के लिए तीन-तीन जोड़ी कपड़े तो पहने हुए थे। वे सब गीले हो चुके थे। पूरा दिन बैठे काँपते रहे। पैर सन्न पड चके थे। हाथों की अँगलियाँ अकड़ गईं थी। पिछले दो दिन से खाने के लिए फफँद लगी ब्रेड के अलावा कुछ न था।


क्योंकि सुरेन्द्र मनन के ये तल्ख अनुभव उसकी दस्तावेजी फिल्मों के निर्माण के दिनों मिले थे। इसलिए उन दिनों वह पंजाब से य.के. के आने वाले 'इल्लीगल इमिग्रेटस' पर केन्द्रित फिल्म के निर्माण के लिए वचिन्तर सिंह से मिले थे। पंजाब से लाखों लोग बीजा इनकार कर दिए जाने पर या बीजा असंभव लगाने पर जीवन का जोखिम उठा कर विदेश पहुँचने की गहरी इच्छा पाले हुए हैं। यह गहरी इच्छा कभी कम नहीं हुई। आज पंजाब के कॉलेजों में नए विद्यार्थियों की भर्ती बहुत कम हो रही है क्योंकि प्लस टू (जमा दो) के बाद सभी लड़के-लड़कियाँ आइलैट्स टस करने निकल पड़ते हैं। माँ के गहने बिके, घर या पुश्तैनी जमीन गिरवी पड़े वे कनेडा पहुँचना चाहते हैं


वाचक के इस सवाल का वचिन्तर के पास कोई जायज जवाब न था-'ऐसा आखिर क्या है यहाँ, जिससे पाने के लिए तुम्हारे जैसे युवक जान की बाजी लगा देने में भी नहीं हिचकते?'


आज फ्रांस में जन विद्रोह की लहरें उठ रही हैं। वहाँ सड़कों पर उतरे प्रदशनकारी राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रीन को 'अमीरों का राजा' कह कर पुकार रहे हैं। उनके राष्ट्रपति चुने जाने के पहले वर्ष में ही अमीरों पर लगने वाले करों में 3.6 बिलियन डालर की कटौती की गई। स्वाभाविक है कि फ्रांस की वार्षिक आय 1 3.6 बिलियन डालर कम हो जाती। कारपोरेट और अमीरों को छूट तथा 70 प्रतिशत लोगों की आय का न बढ़ना 'मार्क्सवाद पर सोचने को बाध्य करता है। कई लोकतांत्रिक देशों में कई दबावों के सामने यही कुछ घट रहा है। इस प्रसंग में 'लेनिन की देह का दायित्व' रचना पढ़ना जरूरी लग सकता है।


'यह नौ दशक पहले की बात है। सुनिश्चित तौर पर कहें, तो जनवरी सन् 1924 की। 87 वर्ष का लम्बा समय व्यतीत होने के बाद अब सन् 2011 था। इस बीच दुनिया बदल चुकी थी। इतिहास कई करवटें ले चुका था। व्यवस्थाएँ मिट बन चुकी थीं। उस दौर की पीढ़ियाँ खत्म हो चुकी थीं। फिर भी पाँच फीट के उस शख्स को देखने की उत्सुकता ज्यों की त्यों बरकरार थी। शीत लहर और बारिश के बीच आज नौ दशक बाद भी अलग-अलग देशों, जातियों, नस्लों के चेहरे यहाँ कतार में जमा थे।'


चेहरे यहाँ कतार में जमा थे।' वाचक का यह प्रश्न हममें से कुछ लोगों का प्रश्न हो सकता है, खास कर वहाँ की कड़ी सुरक्षा और चौकसी को देखते हुए में गार्ड से पूछना चाहता था कि इतनी कड़ी चौकसी और निगरानी का जरूरत आखिर क्यों है? लेनिन को अभी भी इतनी सुरक्षा में क्यों रखा हुआ है? क्या उसका वजूद अभी चुनौती बना हुआ है आर हर नए दार म और हर नए दौर में लेनिन की देह एक नया रूप धारण कर लेती है? इसे बचाकर रखने की जद्दोजहद क्या नौ दशक के बाद में भी खत्म नहीं हुई?" (पृ.सं. 88)


में लेनिन की देह सुरक्षित रही, लेकिन समय गुजरने के साथ-साथ वह कभी संकट, कभी चुनौती, कभी दुविधा कभी खेल का एक मोहरा और सन् 2011 तक आते आते तो व्यापार के एक जरिए के रूप में इस्तेमाल होने लगी। लेनिन को सम्बोधित कर कहा-'तुम्हारी देह राजनीतिक खेल का जरिया बन गई।'


सटोरियों का तर्क भी देखें-लेनिन की देह को व्यापार का माध्यम बनाकर अगर बेकारी और तंगहाली फेल रही रूसी जनता को कुछ लोभ कमाने का अवसर . दिया जा रहा है, तो इसमें हर्ज क्या है? ' सुरेन्द्र मनन जहाँ गए वहाँ के समय, _ वहाँ की उलझनों, बेचैन करने वाले प्रश्नों से टकराए। सामाजिक, राजनीतिक परिस्थितियों का विश्लेषण किया, उनकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को खंगाला। बनी बनायी लकीरों से बाहर निकल कर अनुभव खंड को हम तक पहुँचाया। समाज विमर्श के रूप में समाज की बेहतरी को रचनाकार के रूप में पहचाना और दर्ज किया। यथार्थ यहाँ ,


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